हाथी दांत पर जब शुरू की कारीगरी, अब परिवार के 4 लोगों को नेशनल अवार्ड
फरीदाबाद,जनतंत्र टुडे
36 वें सूरजकुंड अंतरराष्ट्रीय हस्त शिल्प मेले में झज्जर जिले की बोंदवाल फैमिली की कला का जादू देश और विदेश के पर्यटकों को खूब आकर्षित कर रहा है। विभिन्न देशों के कलाकारों के बीच बोंदवाल फैमिली की चंदन समेत अन्य लकडिय़ों पर की गई महीन कारीगरी की सजावटी और उपयोगी शिल्प की वस्तुएं मेले की शान बनी हुई हैं। यह फैमिली पूरे जिले में आजादी के पहले से हाथी दांत की कारीगरी को लेकर देशभर में प्रसिद्धि हैं। इस परिवार के 4 सदस्यों को भारत सरकार नेशनल अवार्ड दे चुकी है, जो देश में एक ही परिवार को सबसे ज्यादा बार मिले हैं।
फरीदाबाद के सूरजकुंड में चल रहे 36 वें शिल्प मेले में अपनी स्टॉल पर मौजूद राजेंद्र प्रसाद ने बताया कि उनके पिताजी जयनारायण जब 11 साल के थे तो अपनी बुआ के लडक़े मांडोठी निवासी चंद्र सिंह और मीर सिंह के साथ दिल्ली सीताराम बाजार में अपने गुरु मोटे बाबा पूर्ण चंद के यहां शिल्प सीखने गए और 1935 से हाथी दांत पर काम करना सीखा। पहले हाथी दांत के गहने बनाए जाते थे। राजेंद्र प्रसाद ने बताया कि उसी दौरान उनके दादाजी के एक और गुरु भाई भगत भीम सिंह के दांत में जब दर्द हुआ तो वे उन्हें एक डेंटिस्ट के पास ले गए। यहां उन्होंने देखा कि डेंटिस्ट हैंडपीस से मरीज के दांतों को कुरेद रहा है, तब इसी डेंटिस्ट हैंडपीस से हाथी के दांत पर कारीगरी करने का आईडिया आया, फिर तो जयनारायण और भगत भीम सिंह नॉर्थ इंडिया में हाथी दांत के कलाकार बन गए और इनके सिखाए कलाकार अब भी पूरे नॉर्थ इंडिया, कोलकाता और बांग्लादेश में पीढ़ी दर पीढ़ी काम कर रहे हैं। अब हाथी दांत बंद होने पर महीन कारीगरी की कलाकृतियां, सजावटी वस्तुएं और डेकोरेटिव सामान चंदन समेत अन्य लकडिय़ों पर उकेरी जाती हैं। राजेंद्र प्रसाद ने इस बात को माना कि आज डुप्लीकेसी के युग में लोगों को कला की कद्र नहीं है, लेकिन इस तरह के शिल्प मेले में कला को पहचानने वाले भी खूब हैं और महंगी से महंगी कलाकृतियां खरीद कर ले जाते हैं।
कई देशों में किया कला का प्रचार,
इनके सिखाएं विदेशी कलाकार सूरजकुंड मेले में लेकर आए अपना शिल्प बोंदवाल परिवार के कलाकार विदेशों में भी अपनी कला का प्रचार करने खूब गए हैं और अब भी जाते हैं। राजेंद्र प्रसाद बोंदवाल देश के ऐसे नेशनल अवॉर्डी हैं, जो भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय के खर्चे पर डेढ़ साल तक समय-समय पर ट्यूनीशिया गए और वहां के युवाओं को अपनी कला सिखाई। अब सूरजकुंड मेले में उनके सिखाए कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। इसके अलावा राजेंद्र बोंदवाल श्रीलंका, इटली और जर्मनी जा चुके हैं। महावीर प्रसाद इंग्लैंड, जर्मनी, इंडोनेशिया और पनामा गए जबकि चंद्रकांत दुबई, ऑस्ट्रेलिया, ओमान और पेरिस में जाकर वहां के लोगों को ट्रेनिंग दे चुके हैं।
दो पुत्रों को मिला नेशनल अवॉर्ड फिर पोते ने भी मारी बाजी
हाथी दांत के बाद लकड़ी पर महीन कारीगरी करने की परंपरा परिवार में डालने वाले जय नारायण को 1996 में नेशनल अवॉर्ड मिला था। इससे पहले उनके दो बेटों महावीर प्रसाद बोंदवाल को 1979 में पहला नेशनल अवॉर्ड मिला, फिर उनके छोटे भाई राजेंद्र प्रसाद को 1984 में हाथी दांत की कारीगरी पर यह अवॉर्ड मिला। इसके बाद 2004 में जयनारायण के पोते चंद्रकांत बोंदवाल को चंदन की लकड़ी पर शिल्प करने पर भारत सरकार ने नेशनल अवॉर्ड दिया। इसी प्रकार से तीसरी पीढ़ी के सूर्यकांत को 2003 और नीरज को 2015 में स्टेट अवॉर्ड मिल चुका है।
बोंदवाल फैमिली ने ही हरियाणा में शुरू करवाया था शिल्प अवॉर्ड
झज्जर में बहादुरगढ़ निवासी बोंदवाल फैमिली ने ही 1981 में पहली बार हरियाणा में शिल्प का स्टेट अवॉर्ड शुरू कराया था। महावीर प्रसाद बोंदवाल ने हरियाणा सरकार से यह गुजारिश की थी। इसके बाद यह अवॉर्ड शुरू हुआ। इसी परिवार के कहने से इसकी राशि 3 लाख रुपए कर दी गई है, जो देश में सबसे ज्यादा है। राजेंद्र प्रसाद बोंदवाल को अपनी जिस कलाकृति के जरिए 2015 में शिल्प गुरु का अवॉर्ड पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हाथों मिला। उस कलाकृति को राजेंद्र प्रसाद ने एक लाख रुपए कीमत लगने पर भी अब तक नहीं बेचा। राजेंद्र प्रसाद का कहना है कि इस कलाकृति को उन्होंने 5 महीने में तैयार किया था। हर दिन इसे बनाने में 6 से 7 घंटे उन्होंने लगाए। वह ट्री ऑफ लाइफ नामक इस कलाकृति को बेशकीमती बताते हैं। कुल मिलाकर यही कहा जाएगा कि बोंदवाल फैमिली की कला का इस मेले में हर कोई दीवाना बन चला है।