अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस: हर भाषा हर बोली को सलाम
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने स्वयं के अनुभव के आधार पर कहा है कि ‘मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना, क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की’। और यह अटल सत्य भी है कि भाषा केवल संवाद की ही नहीं अपितु संस्कृति एवं संस्कारों की भी संवाहिका है। भारत एक बहुभाषी देश है। सभी भारतीय भाषाएँ समान रूप से हमारी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक अस्मिता की अभिव्यक्ति करती हैं। यद्यपि बहुभाषी होना एक गुण है किंतु मातृभाषा में शिक्षण वैज्ञानिक दृष्टि से व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है। मातृभाषा में शिक्षित विद्यार्थी दूसरी भाषाओं को भी सहज रूप से ग्रहण कर सकता है । प्रारंभिक शिक्षण किसी विदेशी भाषा में करने पर जहाँ व्यक्ति अपने परिवेश, परंपरा, संस्कृति व जीवन मूल्यों से कटता है वहीं पूर्वजों से प्राप्त होने वाले ज्ञान, शास्त्र, साहित्य आदि से अनभिज्ञ रहकर अपनी पहचान खो देता है। कोई भी देश तब तक विकास नहीं कर सकता जब तक की उसकी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खुद की भाषा न हो। हम सारी भाषाओं का स्वागत करते हैं। क्योंकि भाषा किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता की संवाहक होती है। राष्ट्र निर्माण में भाषा की क्या भूमिका हो सकती है वह हमें चीन,कोरिया,जापान, इजराइल जैसे देशों से बखूबी सीखना चाहिए।
मातृभाषा हमारा गौरव: भारत के ख्याति प्राप्त अधिकतर वैज्ञानिकों ने अपनी शिक्षा मातृभाषा में ही प्राप्त की है। महामना मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, श्री माँ, डा. भीमराव अम्बेडकर, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे मूर्धन्य चिंतकों से लेकर चंद्रशेखर वेंकट रामन, प्रफुल्ल चंद्र राय, जगदीश चंद्र बसु जैसे वैज्ञानिकों, कई प्रमुख शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों ने मातृभाषा में शिक्षण को ही नैसर्गिक एवं वैज्ञानिक बताया है।
मातृभाषा हमारी पहचान : अंग्रेजों के 200 वर्ष के शासनकाल और स्वतंत्रता के बाद 73 वर्षों में हमें अंग्रेजी पढ़ाई गई। इसके बावजूद भारत में दो प्रतिशत से अधिक लोग अंग्रेजी नहीं जानते। हमने यह मान लिया है कि भारत में कुछ है ही नहीं या फिर जो कुछ है, वह निम्न कोटि का है। इस मानसिकता के कारण हम अपनी भाषा से ही नहीं, वरन भारतीयता से भी विमुख हो गए। जब कमाल पाशा ने सत्ता संभाली तो उसने सबसे पहले तुर्की भाषा को अनिवार्य किया। माओ त्से तुंग ने चीन में चीनी भाषा को लागू किया और इसी तरह इजरायल ने लगभग समाप्त हो चुकी अपनी भाषा हिब्रू को जीवित किया। आज दुनिया में हिंदी भाषा-भाषियों की संख्या करोड़ों में है, लेकिन यह लोग अपनी भाषा में लिखते-पढ़ते नहीं है। जब हम हिंदी में लिखेंगे-पढ़ेंगे नहीं, तब वह समृद्ध कैसे होगी? हमें कटिबद्ध होना चाहिए कि अपनी भाषा से प्रेम करेंगे, सम्मान करेंगे और उसे विकृत नहीं होने देंगे। मातृभाषा में शिक्षण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का भी एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी प्रयास है।
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